लखनऊ । विनोबा विचार प्रवाह के सूत्रधार रमेश भईया ने कहा कि हमें दैवी संपत्ति को पकड़ना है और आसुरी संपत्ति को छोड़ना है। सत्य अहिंसा आदि दैवीय गुणों का विकास सदा हुआ ही हैं। जब तक हमें सामाजिक शरीर प्राप्त है। तब तक विकास के लिये हमें अनंत अवकाश है।वैयक्तिक विकास हो भी जाए फिर भी सामाजिक,राष्ट्रीय, जागतिक विकास शेष रहता ही है। पहले अहिंसक मानव ने हिंसक लोगों के हमले से बचाव का तरीका ढूंढा ।
इसकी रक्षा हेतु क्षत्रिय वर्ग बना परंतु उनसे भी।रक्षण का सपना पूरा नहीं दिखा।परशुराम ने तो अहिंसक होकर भी हिंसा का सहारा लेकर क्षत्रियों का विनाश करने का संकल्प लिया। क्षत्रिय हिंसा छोड़ दे इसलिए परशुराम स्वयं हिंसक बने। यह अहिंसा का ही प्रयोग था, परंतु सफल नहीं हुआ।उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया फिर भी क्षत्रिय बचे ही रहे। क्योंकि यह प्रयोग मूल में ही गलत था।जिन क्षत्रियों को नष्ट करने वे चले थे,उनमें एक और क्षत्रिय की वृद्धि ही उन्होंने अपने को जोड करके की,तो फिर क्षत्रिय वर्ग नष्ट कैसे होता? वे स्वयं ही हिंसक क्षत्रिय बन गए।
वह बीज तो कायम ही रहा।बीज को कायम रखकर पेड़ों को काटने वाले को वे पेंड पुनः पुनः पैदा हुए ही दीखेंगें। बाबा विनोबा कहते थे। कि परशुराम जी थे तो बहुत भले आदमी,परंतु उनका प्रयोग बड़ा विचित्र हुआ।स्वयं क्षत्रिय बनकर वे पृथ्वी को नि:क्षत्रिय करना चाहते थे।हिंसामय होकर हिंसा दूर करना संभव नहीं।परशुराम उस काल के महान अहिंसावादी थे। हिंसा के उद्देश्य से उन्होंने हिंसा नहीं की।अहिंसा की स्थापना के लिए उन्होंने हिंसा की। बाद में राम का युग आया।
अब ब्राम्हणों ने सोंचा कि ये क्षत्रिय तो हिंसा करने वाले ही हैं, इन्हीं से राक्षसों का संहार करा डालना चाहिए। कांटे से कांटा निकाल डालना चाहिए। हम स्वतः इससे दूर रहें। अतः विश्वामित्र यज्ञ_ रक्षणार्थ राम_ लक्ष्मण को ले जाकर उनके द्वारा राक्षसों के संहार का कार्य करवाया। बाबा आज ऐसा सोचते थे कि जो अहिंसा स्व_ संरक्षित नहीं है,जिसके पांव नहीं हैं,ऐसी लंगड़ी_ लूली अहिंसा खड़ी कैसे रहेगी? यदि राम के जैसा क्षत्रिय न मिला होता तो? क्योंकि विश्वामित्र तो कहते ही थे कि मैं भले ही मर जाऊं,पर हिंसा नहीं करूंगा। क्योंकि हिंसक बनकर हिंसा दूर करने का प्रयोग परशुराम जी के द्वारा हो ही चुका था। अरण्यकाण्ड में एक प्रसंग आया हैं_ राम पूंछते हैं ऋषिवर, ये ढेर किस चीज के हैं? ऋषि कहते हैं _ ये ब्राम्हणों की हड्डियों के ढेर हैं।
अहिंसक ब्राम्हणों ने आक्रमणकारी हिंसक राक्षसों का प्रतिकार नहीं किया।वे मर मिटे। राम,ये उन्हीं की हड्डियों के ढेर हैं। इस अहिंसा में ब्राम्हणों का त्याग तो था, परंतु साथ ही दूसरों से अपने संरक्षण की अपेक्षा भी वे रखते थे। ऐसी कमजोरी से कभी आहिंसा पूर्णता को नहीं पहुंच सकती थी। अहिंसा का तीसरा प्रयोग संतों ने किया। उन्होंने निश्चय किया_ कि हम अपने बचाव के लिए दूसरों की सहायता कदापि नहीं लेंगे।हमारी अहिंसा ही हमारा बचाव करेगी। संतों का यह प्रयोग व्यक्तिनिष्ठ था। इस व्यक्तिगत प्रयोग को उन्होने पूर्णता तक तो पहुंचा दिया,परंतु रहा। वह व्यक्तिगत ही।
अहिंसा के साधनों से व्यक्तिगत के बजाय सामूहिक प्रयोग करने की प्रेरणा उन्हें नहीं हुई ऐसा कहना तो बहुत ठीक नहीं होगा,लेकिन उस समय की परिस्थिति उन्हें शायद अनुकूल न लगी हो। उन्होंने अपने लिए अलग अलग प्रयोग तो किए,परंतु ऐसे पृथक पृथक प्रयोगों से ही शास्त्र की रचना होती है लेकिन सम्मिलित अनुभवों से शास्त्र बनता है। संतों के प्रयोग के बाद बाबा विनोबा ने कहा कि आज हम चौथा प्रयोग कर रहे हैं।वह है
सारा समाज मिलकर अहिंसात्मक साधनों से हिंसा का प्रतिकार करें। अभी तक जो भी प्रयोग अहिंसा के हुए,प्रत्येक प्रयोग में अपूर्णता ही रही। लेकिन यह तो कहना ही होगा कि उस_उस काल के लिए वे_ वे प्रयोग पूर्ण ही थे। शुद्ध अहिंसा के और भी प्रयोग होते ही रहेंगे।
ज्ञान कर्म और भक्ति का ही नहीं,सभी सद्गुणों का विकास हो रहा है। पूर्ण वस्तु एक ही है।वह है परमात्मा। गीता के।पुरुषोत्तम योग के बाद भी व्यक्ति और समुदाय के जीवन में अभी उनका पूर्ण विकास होना बाकी है।वचनों का भी विकास होता है।ऋषि मंत्रों के।दृष्टा समझे जाते थे, कर्ता नहीं ,क्योंकि उन्हें मंत्रों का अर्थ दिखा,वही उसका अर्थ है, सो बात नहीं। उससे आगे का भी उन्हीं के आधार से अर्थ दिख सकता है। सभी सद्गुणों का सार अहिंसा ही निकलेगा। और हमारा अहिंसात्मक युद्ध निरंतर चल ही रहा है।
